Saturday, July 14, 2007

बात एक रूपये की

मैंने बहुत से लोगों को कहते सुना है कि आजकल एक रूपये में क्या आता है. पर बात सोचने वाली बात यह है कि आजकल एक रूपये के सिक्के मिल कहाँ रहा है. कुछ समय से बाज़ार में एक रूपये के सिक्कों की कमी नजर आ रही है. इसका कारण सिक्कों की होती कालाबाजारी है जिसके पीछे एक संगठित समूह (गिरोह) काम कर रहा है. इस समूह के सक्रिय सदस्य एजेंट के रूप में जगह जगह फैले रहते है जो स्थानीय दूकानदारों तथा लोगों को कमीशन का लालच (जो १०० रूपयों के बदले १३० से १५० रूपये होता है) देकर सिक्के इकठ्ठे करवाते हैं. और इन सिक्कों को किसी ब्लेड बनाने वाली फैक्ट्री को सप्लाई कर देते हैं. जहाँ इन्हें गलाकर प्राप्त धातु से ब्लेड बनाये जाते हैं. सामान्यतया १ रूपये से प्राप्त धातु से ६ ब्लेड बन जाते हैं . इस हिसाब से १०० रूपयों के सिक्कों से ६०० ब्लेड बन जाते है. १ ब्लेड की कीमत बाज़ार में एक रूपया होती है. इस तरह देखा जाय तो ये कितना मोटा मुनाफ़ा कमां रहे हैं और रिज़र्व बैंक को चूना लगा रहे हैं. सरकार ने पूर्व प्रचलित पीतल और तांबे के सिक्कों को इसलिये बंद किया था क्योंकि उन सिक्कों कि कालाबाजारी हो रहि थी. अब इन नये सिक्कों के साथ भी वही हो रहा है. जिस तेजी से टेक्नोलाँजी का विकास हो रह है उसी तेजी से अपराध के तरीकों में भी विकास हो रहा है. अब तक ना जाने कितने सिक्कों का अस्तित्व समाप्त किया जा चुका होगा. इस नुकसान से सरकार के साथ साथ जनता को भी दो चार होना पड़ता है क्योंकि सिक्कों के अभाव में या तो सिक्का छोड़ना पड़ता है या ऐसा सामान लेना पड़ता है जिसकी उन्हें आवश्यकता नहीं है ( जैसे समान के साथ टाँफ़ी पकडा़ देना क्यूंकि एक रूपया नहीं है). इस समस्या से मुझे तो दो चार होना ही पड़ता है क्या आप भी इससे प्रभावित हैं?? अपनी टिप्प्णीयों का स्वागत है. नीलकंठ